BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।

अथवा
योग का अर्थ तथा रूप बताइए। अथवा
योग के अनुसार पांच चित्त भूमियों की व्याख्या कीजिए। अथवा
योग के अष्टांग साधन बताइए। अथवा
योगांग किसे कहते हैं? अथवा
योग दर्शन में प्राणायाम की विवेचना कीजिए। अथवा
प्राणायाम क्या है? विवेचना कीजिए।
अथवा अष्टांग योग सिद्धांत की पूर्ण व्याख्या कीजिये। अथवा
योग दर्शन के अनुसार अष्टांग योग के आठ चरणों के नाम बताइये।

उत्तर - 

योग का अर्थ चित्त वृत्तियों का निरोध है। जब व्यक्ति में भ्रम की उत्पत्ति होती है तो आत्मा व चित्त की एकता समाप्त हो जाती है जिससे आत्मा बन्धनों में पड़ जाती है, इसे दूर करने के लिए विवेक रूपी ज्ञान की आवश्यकता होती है। योग दर्शन में मानसिक अवस्था को चित्त भूमि या मन कहते है। मन अथवा मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं-

१. क्षिप्त, २. मूढ़, ३. विक्षिप्त, ४. एकाग्र, ५. निरूद्ध

इसमें प्रत्येक अवस्था में किसी-न-किसी तरह से कुछ-न-कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध नियंत्रण रहता है। चित्त में रजोगुण का दबाव रहता है। चित्त में स्थिरता नहीं रहती, इस अवस्था में योग का अभ्यास सम्भव नहीं होता है।

सतोगुण से चित्त का शुद्धिकरण होता है तथा मन को शान्ति मिलती है। योग के अभ्यास के कारण उचित वातावरण तैयार होता है। योग ध्यान के केन्द्रीयकरण के लिए भी आवश्यक है। योग दर्शन में समाधि उस अवस्था का नाम है, जिसमें मोक्ष की प्राप्ति आवश्यक है। योग में सतोगुण का अधिक प्रभाव रहता है। एकाग्र अवस्था को संप्रज्ञात योग कहते हैं। इसमें उद्देश्य का स्पष्ट ज्ञान होता है इसलिए इसे सचेतन समाधि कहते हैं।

योग दर्शन के अभ्यास के अंग

योग के अभ्यास के लिए आठ अंगों के नाम लिए जाते हैं-
१. यम, २. नियम, ३. आसन ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारण, ७. ध्यान, ८. समाधि।

इसमें यम के पाँच प्रकार हैं-
१. अहिंसा, २. सत्य, - ३. अस्तेय, ४. बह्मचर्य, ५. अपरिग्रह।

अपरिग्रह के भी पाँच नियम हैं-
१. शोध, २. सन्तोष, ३. तप, ४. स्वाध्याय, ५. ईश्वर प्रणिधानि

। योग दर्शन के अनुसार, यह संसार दुःखों से भरा है तथा दुःखों से मुक्ति पाने के लिए मोक्ष ही उपाय है। इसके लिए एकमात्र उपाय योग है। आत्मा के विकास या उसके परमात्मा में विलीन होने के लिए योग ही एकमात्र साधन है। योग की चर्चा वेद, उपनिषद्, स्मृति, गीता, महाभारत आदि में भी की गई है। योग का कार्य धर्म और दर्शन के ज्ञान के साथ-साथ हृदय को शान्ति देना तथा चित्त की चंचलता को समाप्त करना भी है। योग से जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति होती है। योग का दार्शनिक महत्त्व भी है। आत्मा की उन्नति के लिए भी योग का सहारा लिया जाता है। योग के द्वारा आत्म-नियंत्रण भी सम्भव होता है। सांख्य दर्शन के समान योग दर्शन भी मोक्ष की प्राप्ति पर बल देता है तथा इसके लिए शारीरिक और मानसिक वृत्तियों का दमन करना आवश्यक है। आत्म-ज्ञान तथा विवेक ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक व्यावहारिक मार्ग बताया जाता है तथा इस ज्ञान के लिए योग का सहारा लेना पड़ता है।

योग दर्शन में तीन मार्ग

योग दर्शन में योग की साधना के लिए तीन मार्ग बताये जाते हैं-

१. ज्ञान योग, २. भक्ति योग, ३. कर्म योग।

योग दर्शन में यदि व्यक्ति का झुकाव ज्ञान की तरफ होता है तो व्यक्ति ज्ञान मार्ग अपना लेता है। यदि उसका झुकाव भक्ति की ओर होता है तो वह भक्तिमार्ग को अपना लेता है। यदि वह कर्म की ओर झुकता है तो वह कर्म मार्ग को अपना लेता है। योग दर्शन में कर्म के विधान को पूर्णरूप से स्वीकार किया गया है। हमारे जीवन के ऊपर कर्मवाद का पूरा प्रभाव है। जीवन का स्वरूप भी कर्मों से ही निर्धारित होता है। जीवन की अवधि पर कर्म का प्रभाव होता है। योग साधना से अलौकिक शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। योग दर्शन में अलौकिक सिद्धियों को प्रकृति के नियमों के लिए बाधक नहीं माना गया है। अलौकिक शक्तियाँ चमत्कारपूर्ण हैं परन्तु प्रकृति के कार्यों में बाधक नहीं हैं। योग दर्शन के अनुसार, "सिद्धियाँ जन्म से, औषधियों से, मंत्रों से, तपस्या से अथवा समाधि द्वारा प्राप्त होती है। कुछ व्यक्ति जन्म से ही सिद्धियों के स्वामी होते हैं। ये पूर्व जीवन के योग साधना से हासिल हो सकता है।

पतंजलि के अनुसार, ईश्वर विचार योग साधना में सहायक है। ध्यान और समाधि में ईश्वर का होना आवश्यक है। इससे ध्यान की एकाग्रता में साध्यता मिलती है। सांख्य के समान योग भी सत्कार्यवाद को मानता है। असत् की उत्पत्ति नहीं होती व सत्य का विनाश नहीं होता। योगशास्त्र का मुख्य विषय योग अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरोध है। योग सिद्धि के मार्ग में जो रुकावट आती है, उसे ईश्वर दूर करता है। ईश्वर प्रणिधान से योग की बाधाएँ दूर होती हैं। व्याधि, प्रमाद, संशय, सत्यान, भोग, तृष्णा तथा भ्रम समाधि की अप्राप्ति और समाधि में मन का अस्थिर होना योग की बाधाएँ हैं। व्यास ने चित्त की पाँच भूमियाँ बताई हैं-

योग के अनुसार पांच चित्त भूमियाँ

१. क्षिप्त भूमि, २. मूढ़ भूमि ३. विक्षिप्त भूमि, ४. एकाग्र भूमि, ५. निरुद्ध भूमि।

व्यास ने समाधि को योग कहा है। समाधि चित्त का सामान्य धर्म है। अभ्यास और वैराग्य से सभी योग की सिद्धि कर सकते हैं। योग के अनुसार मनुष्य ईश्वर की सहायता प्राप्त कर मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति सरलता से कर लेता है।

१. क्षिप्त भूमि - क्षिप्त को रजस भी कहते है। यह चित्त की ऐसी अवस्था है जहाँ पर रजोगुण की प्रधानता भी रहती है, यहाँ पर धित्त बेचैन एवं चंचल रहता है। यहाँ ध्यान एक वस्तु पर न टिक कर इधर उधर भटकता रहता है। इस अवस्था में मन एवं इन्द्रियाँ भी अनियन्त्रित रहती है इस अवस्था को योगानुकूल नहीं कहा जा सकता।

२. मूढ़ भूमि - यह चित्त की ऐसी अवस्था है जिसमें तमोगुण की प्रधानता रहती है। इसमें निद्रा एवं आलस्य का बोलबाला रहता है। इस अवस्था को योगानुकूल नहीं कहा जा सकता है।

३. विक्षिप्त भूमि - इस अवस्था की स्थिति क्षिप्त एवं मूढ़ के बीच की है। इसमें रजोगुण आंशिक रूप से विद्यमान रहता है। इस अवस्था में चित्त वृत्तियों का कुछ अंश तक निरोध हो जाता है। इसलिए इस अवस्था को कुछ सीमा तक योग के अनुकूल नहीं कहा जा सकता।

४. एकाग्र भूमि - एकाग्र चित्त की वह अवस्था है जो सत्व गुण के प्रभाव में रहता है। सत्व गुण की प्रधानता के कारण इस अवस्था में ज्ञान का प्रकाश रहता है। चित्त अपने विषय पर अधिक समय तक ध्यान केन्द्रित कर पाता है। यहाँ रजोगुण का प्रभाव समाप्त हो जाता है। यह अवस्था योग अवस्था में पूर्णतः सहायक होती है।

५. निरूद्ध भूमि - निरूद्ध चित्त की पाँचवी अवस्था है। इसमें चित्त किसी विषय पर पूर्ण ध्यान केन्द्रित कर पाता है। यहाँ चित्त वृत्तियों का पूर्णतया नाश हो जाता है। इस अवस्था में चित्त की स्थिरता प्राप्त होती है। यहाँ ध्यान इधर उधर भटकता नहीं दिखता। यह अवस्था योग के अनुकूल वातावरण तैयार करती है।

योग के अष्टांग

पतंजलि ने योग को चित्त वृत्ति निरोध कहा है। योग के सिद्ध हो जाने पर दूरदर्शन, दूरश्रवण, परिचित्त ज्ञान आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अगर योगी व्यक्तियों में सिद्धियों का मोह हो जाता है तो वह योग से भ्रष्ट हो जाता है, अगर वह उसकी उपेक्षा करता है तो वह सदा के लिए योग में स्थित हो जाता है। योग के अभ्यास से योगी क्रमशः उच्चतर भूमियों में पहुँचता है। योग के अभ्यास के लिए शरीर, प्राण और मन से कठोर संयम बरतना पड़ता है। योग में मुख्य बात अनुशासन की है। योग के आठ अंग हैं। मनुष्य का मन जब तक वासनाओं या विकारों से पूर्ण रहता है, उसे तब तक सत्य का रूप दिखाई नहीं देता हैं। चित्त के विकार बुद्धि में भी दोष उत्पन्न कर देते हैं जिससे भ्रम या अज्ञान की स्थिति उत्पन्न होती है। अज्ञानता के कारण व्यक्ति बंधनों में फँस जाता है व आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप से अलग हो जाती है। यह स्थिति तब तक रहती है जब तक चित्त के विकार समाप्त नहीं होते। जब तक चित्त को आत्मा से अलग नहीं किया जाता तब तक मोक्ष भी प्राप्त नहीं होता व व्यक्तियों का मन वासनाओं या विकारों में लिप्त रहता है।

योगांग

शुद्ध ज्ञान को विवेक ज्ञान कहते हैं। स्वच्छ और निर्मल बुद्धि के फलस्वरूप ज्ञान उत्पन्न होता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मज्ञान आवश्यक होता है। आत्माज्ञान को प्रज्ञा के नाम से जाना जाता है। प्रज्ञा का अर्थ है आत्म दृष्टि के द्वारा सत्य का पूर्ण ज्ञान। चित्त की शुद्धता और पवित्रता को बनाये रखने के लिये योग दर्शन में आठ प्रकार के साधन बताये गये हैं, उन्हें योगांग कहते हैं। ये निम्नलिखित हैं-

(१) यम (Absentions) (२) नियम (Observances) (३) आसन (Postures) ((५) प्रत्याहार (Sense control) (६) धारण ( Fixsing the mind on a particular object), (७) ध्यान (Meditation) (८) समाधि ( Concentration)

(१) यम - यम को योग का पहला अंग कहा जाता है। इसके पाँच भेद माने जाते हैं। यह एक नैतिक साधना है, इसके भेद निम्नलिखित हैं-

१. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय अर्थात् चोरी न करना, ४. ब्रह्मचारी अर्थात् विषय वासना से दूर रहना, ५. अपरिग्रह अर्थात् लालचवश अनावश्यक वस्तु को स्वीकार न करना।

योग दर्शन के नियम

योगी के लिए इन पाँच नियमों का पालन करना अनिवार्य है। मन को शक्तिशाली बनाने के लिए शरीर को भी सबल बनाना आवश्यक है इसलिए योग का विशेष महत्त्व है। काम, क्रोध, मोह, अर्थ और धर्म आदि से चित्त में अशुद्धि आ जाती है। चित्त को शुद्ध बनाये रखने के लिए शरीर को नियंत्रित करना आवश्यक होता है, 'यम' इसके लिए आवश्यक है।

अहिंसा से तात्पर्य है कि किसी भी प्राणी के प्रति क्रूर व्यवहार न करना तथा सबके प्रति दया, करुणा व सद्भाव रखना। अहिंसा का अर्थ भी यही है अर्थात् हिंसा न करना। सत्य से तात्पर्य है सब प्राणियों के हित को ध्यान में रखते हुए जैसा सोचना वैसा बोलना। सत्य वही है जो सबके हित के लिए कहा जाएं। योग का नैतिक पक्ष स्वार्थवादी (Egoistic) नहीं है। योग परहितवादी (Altruistic ) है।

अस्तेय से तात्पर्य है दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित रूप से अधिकार न करना। अस्तेय के दो पक्ष हैं एक स्थूल या बाह्य तथा दूसरा सूक्ष्म या आन्तरिक।

ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है उपस्थ संयम और उन इन्द्रियों का भी संयम जो कामेच्छा से सम्बन्धित हैं। रति क्रिया का स्मरण, उसकी चर्चा, किसी स्त्री से काम-क्रीड़ा करना और एकान्त में भाषण करना, उसके अंगों को देखना, काम चिन्तन, रति का इरादा करना और मैथुन ये आठ प्रकार की काम तृप्तियाँ हैं। ब्रह्मचर्य के लिए इनसे दूर रहना आवश्यक है।

अपरिग्रह से तात्पर्य है उपयोग की वस्तुओं का संचय न करना। सम्पत्ति का संग्रह, रक्षण और व्यय करने में राग और हिंसा के दोष होते हैं।

योग दर्शन के अनुसार बन्धन का मूल कारण अविवेक है। जब पुरुष और प्रकृति के भेद का ज्ञान नहीं होता है तो आत्मा बन्धन में पड़ जाती है। इसी कारण मोक्ष के लिए तत्व ज्ञान पर बल दिया गया है। मनुष्य के चित्त में विकार रहने के कारण ही बुद्धिं दूषित रहती है। इसीलिए उसे तत्व ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। मुक्ति के लिए प्रज्ञा आवश्यक है। प्रज्ञा का अर्थ है आत्म दृष्टि के द्वारा यह जानना कि आत्मा नित्य युक्त शुद्ध चैतन्य स्वरूप है तथा शरीर एवं मन से भिन्न है। इसकी प्राप्ति हेतु चित्त का शुद्ध और निर्मल होना आवश्यक है। योग दर्शन में चित्त की वृत्तियों को रोकने के लिए महत्व दिया गया है। वृत्तियों के रोकने से चित्त शुद्ध होता है और जब तक चित्त शुद्ध नहीं होता जीव को मुक्ति की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए योग दर्शन में आठ साधनों का प्रतिपादन किया गया है। इन आठ साधनों को अष्टांग योग, अष्टांगिक मार्ग नामों से जाना जाता है। ये निम्न हैं-

(१) यम, (२) नियम, (३) आसन, (४) प्राणायाम, (५) प्रत्याहार, (६) धारणा, (७) ध्यान; समाधि।

(१) यम - यह योग का प्रथम अंग है। वाह्य एवं आन्तरिक इन्द्रियों के संयम की क्रिया को यम कहते हैं। भय के पाँच अंग होते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह। किसी जीव को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना अहिंसा है। मिथ्या वचन का परित्याग सत्य है। चौर्य वृत्ति का परित्याग अस्तेय है। विषय वासना से दूर रहना तथा इन्द्रियों को संयम मंप रखना ही ब्रह्मचर्य है। लोभवश किसी अनावश्यक वस्तुओं को ग्रहण नहीं करना ही अपरिग्रह कहलाता है।

(२) नियम - योग का दूसरा अंग नियम है। शोध, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि ये पाँच नियम हैं। शोध के भी दो प्रकार हैं-

१. बाह्य शोध, २. आन्तरिक शोध।

बाह्य शोध से तात्पर्य शरीर को जल आदि से साफ करना है जबकि आन्तरिक शोध से तात्पर्य है चित्त के विकारों को निकाल देना, किसी चीज की इच्छा न करना, तप में भूख प्यास, सर्दी-गर्मी को सहना, लगातार बैठे रहना या खड़े रहना, मौन रहना तथा किसी प्रकार की इच्छा प्रकट न करना तथा शारीरिक कठिनाइयों को झेलना आदि। नियम का सम्बन्ध आचरण से है, नियम में सदाचार का पालन होता है।

(३) आसन - यह योग का तीसरा अंग है। नियम को हम दूसरा नैतिक साधन कहते हैं। यहाँ पर आसन साधन का काम शरीर के लिए करता है। आसन से तात्पर्य है कि शरीर को एक विशेष स्थिति में रखना जिससे सुख मिलने की सम्भावना हो। आसन कई प्रकार के होते हैं जैसे- पद्मासन, वीरासान, भद्रासन, शीर्षासन, सिद्धासन, मयूरासन, गरुड़ासन, श्वासन आदि इन आसनों को करने से पूर्व गुरु को बनाना आवश्यक होता है, तभी ये आसन ठीक प्रकार से हो पाते हैं। चित्त को एकाग्र करने में भी आसानों का विशेष योगदान है। आसनों के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों पर नियन्त्रण स्थापित हो जाता है। शरीर के सभी अंग, स्नायुमंडल आदि आसन के माध्यम से पूर्ण रूप से नियंत्रित हो जाते हैं। आसन में शरीर हिलता नहीं है, न उसमें शरीर को कष्ट होता है, न मन चंचल होता है। आसन तांत्रिका तंत्र को स्वस्थ रखते हैं। योग के लिए शरीर का नियन्त्रण आवश्यक है।

(४) प्राणायाम - पतंजलि ने प्राणायम को ऐच्छिक साधन के रूप में माना। प्राणायाम का अर्थ है श्वास नियन्त्रण। यह एक श्वास-प्रश्वास सम्बन्धी व्यायाम है। यह आसन दुर्बल शरीर के व्यक्तियों के लिए हितकारी नहीं होता, उन्हें इससे सम्मोहन का भय बना रहता है। ऐसे व्यक्ति योग विद्या का भी लाभ नहीं उठा सकते। प्राणायाम के तीन अंग होते हैं-

१. पूरक अर्थात् श्वास भीतर खींचना। २. कुम्भक अर्थात् श्वास को भीतर रोकना। ३. रेचक अर्थात् नियमित तरीके से श्वांस छोड़ना।

शरीर के इस व्यायाम के लिए समर्थ साधक या गुरु की आवश्यकता होती है। प्राणायाम से मन स्वच्छ, पवित्र तथा शरीर सबल होता है। प्राणायाम चित्त की चंचलता को भी रोकता है। जब तक श्वास चलता है, क्रिया पर नियन्त्रण हो जाता है। साधक मनुष्य अभ्यास के द्वारा कुछ मिनटों या घण्टों नहीं, अपितु कई दिनों तक श्वास रोक लेता है। मन में विकार उत्पन्न करने वाले तत्व प्राणायाम से दब जाते हैं। प्राणायाम सबसे बड़ा तप है, इससे मन के मैलों का क्षय तो होता ही है, साथ ही ज्ञान का उदय भी होता है।

(५) प्रत्याहार - यह योग का पाँचवाँ अंग है। प्रत्याहार का अर्थ है इन्द्रियों को वश में करना। इसके लिए पहले बाह्य पदार्थों से इन्द्रियों को अलग करना पड़ता है अर्थात् दोनों का सम्पर्क तोड़ना अनिवार्य होता है। इसके अन्तर्गत बहुत जोर से बोली जाने वाली ध्वनि भी व्यक्ति के कानों को नहीं सुनाई देती। इस अवस्था को प्राप्त करना बहुत कठिन है, लेकिन यह असम्भव नहीं है। इस अवस्था को कठिन योगाभ्यास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये पाँच साधन बहिरंग (external menas) कहलाते हैं तथा शेष तीन साधन धारण, ध्यान और समाधि को अतरंग साधन (interal means) कहते हैं।

(६) धारणा - मन को विशेष स्थान अथवा पदार्थ पर स्थिर करने की क्रिया 'धारण' कहलाती है। इस अवस्था में चित्त स्थिर हो जाता है तथा उसमें परिवर्तन वृत्तियाँ बन्द हो जाती हैं। मन विचारों का भण्डार है, विचार कुछ क्षणों के लिए आते हैं फिर चले जाते हैं परन्तु धारण में ऐसा नहीं होता। इसमें मन किसी एक ही स्थान पर जाकर टिक जाता है तथा मन में कोई दूसरा विचार नहीं आता। वह वस्तु बाह्य पदार्थ भी हो सकता है व आन्तरिक शरीर भी। इसको अपनाने के लिए योग का विशेष महत्त्व है। धारण के अन्तर्गत चित्त नाभि, हृदय, नासिकाग्र, जिह्वाग्र, भृकुटि, मध्य काण्ड आदि पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। धारण से चित्त का नियन्त्रण होता है तथा चित्त अन्य वस्तुओं से हट जाता है अतः चित्त में ध्यान की क्षमता आ जाती है।

(७) ध्यान - यह समाधि से पूर्व की अवस्था है। ध्यान का अर्थ है ध्येय अथवा ध्यान के विषय पर लगातार मनन या चिन्तन करना। इसमें जिस विषय पर ध्यान दिया जाता है, उसके अलावा कोई विचार उत्पन्न नहीं होता। इसमें भ्रम नहीं होता व सत्यता प्रकट होती है। आत्मा को मुक्ति का आभास होने लगता है तथा वह अपने स्वरूप को जानने लगती है। यह तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति दीर्घकाल तक इसका अध्ययन करता है। ध्यान में ध्येय वस्तुओं के प्रत्ययों का निरन्तर प्रवाह चलता रहता है तथा उस प्रवाह के मध्य किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती।

(८) समाधि - धारण, ध्यान और समाधि तीनों योग के अंतरंग साधन हैं, तीनों का उद्देश्य एक ही रहता है। अन्य शब्दों में, तीनों एक ही विषय या पदार्थ को लेकर मन में धारण होती हैं। तीनों का मेल संयम कहलाता है। यह योग का अन्तिम साधन है। समाधि योग साधना की अन्तिम सीढ़ी है। इस सीढ़ी के द्वारा साधक अपने लक्ष्य अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति में आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है तथा यही जीवन का लक्ष्य होता है यहाँ पर योग की सारी यात्रा समाप्त हो जाती है तथा इसके बाद किसी योग की आवश्यकता नहीं होती। समाधि में लीन व्यक्ति को यह भी ज्ञात नहीं होता कि वह किस पदार्थ के ध्यान में है। ज्ञाता और ज्ञेय ( Knower and Known) दोनों का भ्रम समाप्त हो जाता है, केवल ध्येय वस्तु का ही प्रकाश रहता है। यह अवस्था दीर्घकाल तक रहती है, तब इसे सम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है। जब अर्थ में प्रकाश भी नहीं रहता, तब इसे असम्प्रज्ञात समाधि कहा जाता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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